Monday, 23 December 2019

निराशा से आशा की ओर

निराशा से आशा की ओर

टूटे पँखो को ले करके
कैसे जीवन जीना हो
भरा हुआ है विष का प्याला
कैसे उस को पीना हो।

उन्मुक्त गगन में उड़ते थे
आंखों में भी सपने थे
धूप छांव आती जाती
पर वो दिन भी अच्छे थे
बेमौसम की गिरी बिजुरिया
कैसे पंख बचाना हो

टूटे पंखों को लेकर के
कैसे जीवन जीना हो

तप्त धरा है राहें मुश्किल
और पांव में छाले हैं
ठोकर में पत्थर है भारी
छाये बादल काले हैं
कठिन परीक्षा की घड़ियां है
फिर भी जोर लगाना हो

टूटे पंखों को ले करके
कैसे जीवन जीना हो।

सब कुछ दाव लगा कर देखो
तरिणि सिंधु में डाली है
नजर नहीं आता प्रतीर भी
और रात भी काली है
स्वयं बाजुओं के दम पर ही
कुछ खोना कुछ पाना हो।

टूटे पंखों को लेकर के
कैसे जीवन जीना हो।

कुसुम कोठारी।

6 comments:

  1. निःशब्द करती हुई रचना सखि

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  2. वाह आशा का आह्वान करती सुंदर रचना प्रिय कुसुम बहन |

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१८-०४-२०२०) को 'समय की स्लेट पर ' (चर्चा अंक-३६७५) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

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  4. तप्त धरा है राहें मुश्किल
    और पांव में छाले हैं
    ठोकर में पत्थर है भारी
    छाये बादल काले हैं
    कठिन परीक्षा की घड़ियां है
    फिर भी जोर लगाना हो
    वाह!!!!
    सचमुच निराशा से आशा की ओर
    बहुत लाजवाब।

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  5. छाये बादल काले हैं
    कठिन परीक्षा की घड़ियां है
    फिर भी जोर लगाना हो

    आशा का दीपक बुझने नहीं देना हैं ,सुंदर संदेश देती रचना ,सादर नमन कुसुम जी

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