Thursday, 10 January 2019

मधु ऋतु

मधु ऋतु

मधु ऋतु  सुहाऐ सखी पतझर नही भाऐ।

अरे बावरी बिन पतझर ,मधु रस कैसे मन भाऐ
अंधकार नही तो बोलो कैसे जुगनु चमक पाऐ।

रजनी का जब गमन है होता तब उषा मुसकाऐ
सारा समय चमकता सूरज भी नही भाऐ।

निशा की कालिमा ही सूरज में उजाला  भरती
जब घन अस्तित्व खोते तो धरती खूब सरसती।

फूल झरते हैं खिल के, पंक्षी फिर भी गाते
गिरा घोंसला पक्षी का फिर भी फूल मुस्काते।

किसी का आना किसी का जाना चलन यही दुनिया का
जगती में कोई मूल्य नही दुख बिन सुख का।

कोई हारा कोई जीता यही खेल जीवन का
हे री सखी पतझर बिनु मधु रस कैसे जीवन का।

                  कुसुम कोठारी ।

5 comments:

  1. प्रिय कुसुम बहन -- मधु ऋतू के आगमन की आहत है और आपकी लेखनी का बसंत भी खिल उठा है | काव्य चित्रात्मकता के लिए में आपकी सदैव प्रशंसक हूँ |
    फूल झरते हैं खिल के, पंक्षी फिर भी गाते
    गिरा घोंसला पक्षी का फिर भी फूल मुस्काते! कितनी सुहानी बात लिखी आपने | फूलों को मुस्काना है बस | संसार में आने जाने का चलन पुराना है | सार्थक रचना सखी | सस्नेह शुभकामनायें |

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    1. आपके आने भर से ब्लाग पर मधु ऋतु आ जाती है रेनू बहन! सही कहा आपने पतझर अब बसंत के संकेत दे रहा है। आपकी सुंदर प्रतिक्रिया और सराहना से सदा असीम सुखानुभुति होती है बहुत सा प्यार भरा आभार बहना ।

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  2. बहुत सुन्दर कुसुम जी. ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा यही है - कहीं धूप तो कहीं छाँव, कहीं मधु ऋतू तो कहीं पतझड़ !

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  3. जी सादर आभार इस सम्मान के लिये ब्लॉग बुलेटिन में अपनी रचना देखना सुखद अनुभव है ।
    हृदय तल से आभार।

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  4. जी सही सर बस यही कह रही है रचना मेरी आपकी विहंगम व्याख्या से उत्साहित हुई मैं और मेरी लेखनी ।
    सादर आभार।

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