Sunday, 30 September 2018
Friday, 28 September 2018
छविकार चित्रकारा
. तुम्ही छविकार चित्रकारा
तप्त से इस जग में हो बस तुम ही अनुधारा
तुम्ही रंगरेज तुम्ही छविकार, मेरे चित्रकारा
रंग सात नही सौ रंगो से रंग दिया तूने मुझको
रंगाई ना दे पाई तेरे पावन चित्रों की तुझको।
हे सुरभित बिन्दु मेरे ललाट के अविरल
तेरे संग ही जीवन मेरा प्रतिपल चला-चल
मन मंदिर में प्रज्जवलित दीप से उजियारे हो
इस बहती धारा में साहिल से बांह पसारे हो।
सांझ ढले लौट के आते मन खग के नीड़ तुम्ही
विश्रांति के पल- छिन में हो शांत सुधाकर तुम्ही
मेरी जीवन नैया के सुदृढ़ नाविक हो तुम्ही
सदाबहार खिला रहे उस फूल की शाख तुम्ही।।
कुसुम कोठारी।
तप्त से इस जग में हो बस तुम ही अनुधारा
तुम्ही रंगरेज तुम्ही छविकार, मेरे चित्रकारा
रंग सात नही सौ रंगो से रंग दिया तूने मुझको
रंगाई ना दे पाई तेरे पावन चित्रों की तुझको।
हे सुरभित बिन्दु मेरे ललाट के अविरल
तेरे संग ही जीवन मेरा प्रतिपल चला-चल
मन मंदिर में प्रज्जवलित दीप से उजियारे हो
इस बहती धारा में साहिल से बांह पसारे हो।
सांझ ढले लौट के आते मन खग के नीड़ तुम्ही
विश्रांति के पल- छिन में हो शांत सुधाकर तुम्ही
मेरी जीवन नैया के सुदृढ़ नाविक हो तुम्ही
सदाबहार खिला रहे उस फूल की शाख तुम्ही।।
कुसुम कोठारी।
Thursday, 27 September 2018
गीत स्वागत दिवाकर
अवनि से अंबर तक दे सुनाई
मौसम का रुनझुन संगीत
दिवाकर के उदित होने का
दसों दिशाऐं गाये मधुर गीत।
कैसी ऋतु बौराई मन बौराया
खिल खिल जाय बंद कली
कह दो उड़-उड़ आसमानों से
रुत सुहानी आई मनभाई भली।
धरा नव रंगों का पहने चीर
फूलों में रंगत मनभावन
सजे रश्मि सुनहरी द्रुम दल
पाखी करे कलरव,मुग्ध पवन ।
सैकत नम है ओस कणों से
पत्तों से झर झरते मोती
मंदिर शीश कंगूरे चमके,बोले
पावन बेला क्यों खोती।
कुसुम कोठारी।
मौसम का रुनझुन संगीत
दिवाकर के उदित होने का
दसों दिशाऐं गाये मधुर गीत।
कैसी ऋतु बौराई मन बौराया
खिल खिल जाय बंद कली
कह दो उड़-उड़ आसमानों से
रुत सुहानी आई मनभाई भली।
धरा नव रंगों का पहने चीर
फूलों में रंगत मनभावन
सजे रश्मि सुनहरी द्रुम दल
पाखी करे कलरव,मुग्ध पवन ।
सैकत नम है ओस कणों से
पत्तों से झर झरते मोती
मंदिर शीश कंगूरे चमके,बोले
पावन बेला क्यों खोती।
कुसुम कोठारी।
Tuesday, 25 September 2018
ऐ चाँद तुम क्या हो
ऐ चाँद तुम...
कभी किसी भाल पे
बिंदिया से चमकते हो ,
कभी घूंघट की आड़ से
झांकता गोरी का आनन ,
कभी विरहन के दुश्मन ,
कभी संदेश वाहक बनते हो।
क्या सब सच है
या है कवियों की कल्पना
विज्ञान तुम्हें न जाने
क्या क्या बताता है
विश्वास होता है
और नहीं भी।
क्योंकि कवि मन को
तुम्हारी आलोकित
मन को आह्लादित करने वाली
छवि बस भाती
भ्रम में रहना सुखद लगता
ऐ चांद मुझे तुम
मन भावन लगते।
तुम ही बताओ तुम क्या हो
सच कोई जादू का पिटारा
या फिर धुरी पर घुमता
एक नीरस सा उपग्रह बेजान।
ऐ चांद तुम.....
कुसुम कोठारी।
कभी किसी भाल पे
बिंदिया से चमकते हो ,
कभी घूंघट की आड़ से
झांकता गोरी का आनन ,
कभी विरहन के दुश्मन ,
कभी संदेश वाहक बनते हो।
क्या सब सच है
या है कवियों की कल्पना
विज्ञान तुम्हें न जाने
क्या क्या बताता है
विश्वास होता है
और नहीं भी।
क्योंकि कवि मन को
तुम्हारी आलोकित
मन को आह्लादित करने वाली
छवि बस भाती
भ्रम में रहना सुखद लगता
ऐ चांद मुझे तुम
मन भावन लगते।
तुम ही बताओ तुम क्या हो
सच कोई जादू का पिटारा
या फिर धुरी पर घुमता
एक नीरस सा उपग्रह बेजान।
ऐ चांद तुम.....
कुसुम कोठारी।
Monday, 24 September 2018
Friday, 21 September 2018
क्षणिकाएं, मन, अहंकार, क्रोध
तीन क्षणिकाएं
मन
मन क्या है एक द्वंद का भंवर है
मंथन अनंत बार एक से विचार है
भंवर उसी पानी को अथक घुमाता है
मन उन्हीं विचारों को अनवरत मथता है।
अंहकार
अंहकार क्या है एक मादक नशा है
बार बार सेवन को उकसाता रहता है
मादकता बार बार सर चढ बोलती है
अंहकार सर पे ताल ठोकता रहता है।
क्रोध
क्रोध क्या है एक सुलगती अगन है
आग विनाश का प्रतिरूप जब धरती है
जलाती आसपास और स्व का अस्तित्व है
क्रोध अपने से जुड़े सभी का दहन करता है।
कुसुम कोठारी।
मन
मन क्या है एक द्वंद का भंवर है
मंथन अनंत बार एक से विचार है
भंवर उसी पानी को अथक घुमाता है
मन उन्हीं विचारों को अनवरत मथता है।
अंहकार
अंहकार क्या है एक मादक नशा है
बार बार सेवन को उकसाता रहता है
मादकता बार बार सर चढ बोलती है
अंहकार सर पे ताल ठोकता रहता है।
क्रोध
क्रोध क्या है एक सुलगती अगन है
आग विनाश का प्रतिरूप जब धरती है
जलाती आसपास और स्व का अस्तित्व है
क्रोध अपने से जुड़े सभी का दहन करता है।
कुसुम कोठारी।
Thursday, 20 September 2018
तृष्णा मोह राग की जाई
तृष्णा मोह राग की जाई
कैसा तृष्णा घट भरा भरा
बस बूंद - बूंद छलकाता है
तृषा, प्यास जीवन छल है
क्षण -क्षण छलता जाता है ।
अदम्य पिपासा अंतर तक
गहरे - गहरे उतरी जाती है
कैसे - कैसे सपने दिखाती
हुई पूर्ण ,नया भरमाती है ।
कृत्य, अकृत्य भी करवाती
जीवन मूल्यों से भी गिराती
द्वेष, ईर्ष्या की है ये सहोदरा
मन से उच्च भाव भुलवाती ।
तृष्णा मोह और राग की जाई
जिसने विजय है इस पर पाई
निज स्वरुप को ऐसा समझा
हाथ कूंची मोक्ष द्वार की आई।
कुसुम कोठारी
कैसा तृष्णा घट भरा भरा
बस बूंद - बूंद छलकाता है
तृषा, प्यास जीवन छल है
क्षण -क्षण छलता जाता है ।
अदम्य पिपासा अंतर तक
गहरे - गहरे उतरी जाती है
कैसे - कैसे सपने दिखाती
हुई पूर्ण ,नया भरमाती है ।
कृत्य, अकृत्य भी करवाती
जीवन मूल्यों से भी गिराती
द्वेष, ईर्ष्या की है ये सहोदरा
मन से उच्च भाव भुलवाती ।
तृष्णा मोह और राग की जाई
जिसने विजय है इस पर पाई
निज स्वरुप को ऐसा समझा
हाथ कूंची मोक्ष द्वार की आई।
कुसुम कोठारी
Wednesday, 19 September 2018
ऐ दिल
ऐ दिल क्यों लौट के, फिर वहीं आता है।
क्या खोया इन राहों मे,
जो ढूंढ नही पाता है,
सूना मन का कोई कोना
खुद भी देख नही पाता है।
ऐ दिल क्यों लौट के....
हर लम्हे की कोई,
पहचान नही होती
फिर भी गुजरा लम्हा
बीत नही पाता है ।
ऐ दिल क्यों लौट के....
कौन सा अनुराग है ये
या कोइ मृगतृष्ना
भटके मन को कैसे
उन राहों से लाऊं ।
ऐ दिल क्यों लौट के....
कुसुम कोठारी ।
क्या खोया इन राहों मे,
जो ढूंढ नही पाता है,
सूना मन का कोई कोना
खुद भी देख नही पाता है।
ऐ दिल क्यों लौट के....
हर लम्हे की कोई,
पहचान नही होती
फिर भी गुजरा लम्हा
बीत नही पाता है ।
ऐ दिल क्यों लौट के....
कौन सा अनुराग है ये
या कोइ मृगतृष्ना
भटके मन को कैसे
उन राहों से लाऊं ।
ऐ दिल क्यों लौट के....
कुसुम कोठारी ।
Saturday, 15 September 2018
पिता सुधा स्रोत
पिता छांव दार तरुवर, नीर सरोवर
देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम हे तरुवर
अब छांव कहां से पाऊं
देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हे नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं ।
देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हे नीलांबर
अब प्राण वात कहां से पाऊं ।
देकर मुझको आधार महल
कहां गये हे धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं ।
देकर मुझ को जीवन
कहां गये हे सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।
कुसुम कोठरी।
देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम हे तरुवर
अब छांव कहां से पाऊं
देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हे नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं ।
देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हे नीलांबर
अब प्राण वात कहां से पाऊं ।
देकर मुझको आधार महल
कहां गये हे धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं ।
देकर मुझ को जीवन
कहां गये हे सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।
कुसुम कोठरी।
Thursday, 13 September 2018
" क्षितिज " संगम पावन
क्षिति, धरा अडिग, अचल
जब भी हुई चलायमान सचल,
लिया विध्वंस रूप विनाश
काश समझता ये आकाश।
अनंत झुकता चला आता है
वसुधा से लिये मिलन का राग,
वो नही उठना चाहती
ये कोई अभिमान ना विराग।
अचलता धैर्य है वसुंधरा का,
जो सदा जगत का आधार है,
उर्वी को पावनता से स्पर्श दे
गगन में अदम्य लालसा है।
अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
एक दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ,
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः ।
यही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन,
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।
कुसुम कोठारी।
Monday, 10 September 2018
प्रकृति के उपहार
लो आई नई भोर...
प्रकृति लिये खड़ी कितने उपहार
चाहो तो समेट लो अपनी झोली में
अंखियों की पलकों में
दिल की कोर में ,साँसों की सरगम में
देखो उषा की सुनहरी लाली
कितनी मन भावन ,
उगता सूरज ,ओस की शीतलता
पंक्षियों की चहक ,फूलों की महक
भर लो अंतर तक ,कलियों की चटक
कोयल की कुहूक मानो कानो में मिश्री घोलती ,
भंवरे की गुंजार ,नदियों की कल-कल,
सागर का प्रभंजन ,लहरों की प्रतिबद्धता
जो कर्म का पाठ पढाती बंधन में रह के भी ,
झरनों का राग,पहाड़ों की अचल दृढ़ता ,
सुरमई साँझ का लयबद्ध संगीत ,
निशा के दामन का अंधेरा कहता
लो आई नई भोर ,
गगन में इठलाते मंयक की उजास भरती रोशनी ,
किरणों का चपलता से बिखरना ,
तारों की टिम - टिम ,
दूर धरती गगन का मिलना
बादलों की हवा में उडती डोलियाँ
बरसता सावन ,मेघों का मंडराना
तितलियों की सुंदरता
और भी न जाने क्या क्या
जिनका कोई मूल्य नही चुकाना
पर जो अनमोल भी है अभिराम भी
कुसुम कोठारी ।
प्रकृति लिये खड़ी कितने उपहार
चाहो तो समेट लो अपनी झोली में
अंखियों की पलकों में
दिल की कोर में ,साँसों की सरगम में
देखो उषा की सुनहरी लाली
कितनी मन भावन ,
उगता सूरज ,ओस की शीतलता
पंक्षियों की चहक ,फूलों की महक
भर लो अंतर तक ,कलियों की चटक
कोयल की कुहूक मानो कानो में मिश्री घोलती ,
भंवरे की गुंजार ,नदियों की कल-कल,
सागर का प्रभंजन ,लहरों की प्रतिबद्धता
जो कर्म का पाठ पढाती बंधन में रह के भी ,
झरनों का राग,पहाड़ों की अचल दृढ़ता ,
सुरमई साँझ का लयबद्ध संगीत ,
निशा के दामन का अंधेरा कहता
लो आई नई भोर ,
गगन में इठलाते मंयक की उजास भरती रोशनी ,
किरणों का चपलता से बिखरना ,
तारों की टिम - टिम ,
दूर धरती गगन का मिलना
बादलों की हवा में उडती डोलियाँ
बरसता सावन ,मेघों का मंडराना
तितलियों की सुंदरता
और भी न जाने क्या क्या
जिनका कोई मूल्य नही चुकाना
पर जो अनमोल भी है अभिराम भी
कुसुम कोठारी ।
Sunday, 9 September 2018
Friday, 7 September 2018
हसरतें खियाबां
हसरतें खियाबां
यूं ही होता जब बंद किताबों के पन्ने पलटते हैं
सफे यादों के ठहरे रूके फिर - फिर चलते हैं
गम और खुशी सभी के हिस्सा ए हयात होता है
कभी हंसाता है और कभी बेपनाह रूलाता है
सो जाती है रात जब, सिर्फ ख्वाब ही चलते हैं
हसरतेें खियाबां की मगर खिज़ा मे भटकते है।
कुसुम कोठारी ।
खियाबां =बगीचा
खिज़ा=पतझर या बैरौनक
यूं ही होता जब बंद किताबों के पन्ने पलटते हैं
सफे यादों के ठहरे रूके फिर - फिर चलते हैं
गम और खुशी सभी के हिस्सा ए हयात होता है
कभी हंसाता है और कभी बेपनाह रूलाता है
सो जाती है रात जब, सिर्फ ख्वाब ही चलते हैं
हसरतेें खियाबां की मगर खिज़ा मे भटकते है।
कुसुम कोठारी ।
खियाबां =बगीचा
खिज़ा=पतझर या बैरौनक
Thursday, 6 September 2018
तुम मुझे भूल जाओ शायद
क्या भूल पाओगी
तुम मूझे भूल जाओ शायद पर साथ
गुजारे वो लम्हे क्या भूल पाओगी
वो निरव तट पे साथ मेरा और मचलती
लहरों का कलछल क्या भूल पाओगी।
वो हवाओं का तेरे आंचल को छेड़ना
और मेरा अंगुलियों पर आंचल रोकना
वो नटखट घटाओं का तेरे चंद्र मुख पर
छा जाना और मेरा फिर उन्हें मोड़ देना
क्या भूल पाओगी....
मेरी कागज पर लिखी निर्जीव गजल
गुनगुना के सजीव करना जब अपना
नाम आता तो दांतों मे अंगुली दबाना
उई मां कह रतनार हो आंख झुकाना
क्या भुला पाओगी.....
वो शर्म की लाली जो अपना ही रूप देख
साथ मेरे आईने मे आती मुख पर तुम्हारे,
वो गिरते आंसुओं को रोकना हथेली पे मेरी
और तुम्हारा उन्ही हथेलियों मे मुख छुपाना
क्या भूल पाओगी...
तुम मुझे भूल जाओ शायद पर साथ
गुजारे वो लम्हे क्या भूल पाओगी ।
कुसुम कोठारी ।
तुम मूझे भूल जाओ शायद पर साथ
गुजारे वो लम्हे क्या भूल पाओगी
वो निरव तट पे साथ मेरा और मचलती
लहरों का कलछल क्या भूल पाओगी।
वो हवाओं का तेरे आंचल को छेड़ना
और मेरा अंगुलियों पर आंचल रोकना
वो नटखट घटाओं का तेरे चंद्र मुख पर
छा जाना और मेरा फिर उन्हें मोड़ देना
क्या भूल पाओगी....
मेरी कागज पर लिखी निर्जीव गजल
गुनगुना के सजीव करना जब अपना
नाम आता तो दांतों मे अंगुली दबाना
उई मां कह रतनार हो आंख झुकाना
क्या भुला पाओगी.....
वो शर्म की लाली जो अपना ही रूप देख
साथ मेरे आईने मे आती मुख पर तुम्हारे,
वो गिरते आंसुओं को रोकना हथेली पे मेरी
और तुम्हारा उन्ही हथेलियों मे मुख छुपाना
क्या भूल पाओगी...
तुम मुझे भूल जाओ शायद पर साथ
गुजारे वो लम्हे क्या भूल पाओगी ।
कुसुम कोठारी ।
Wednesday, 5 September 2018
कल तक बरखा मन भावन
कल तक बरखा मनभावन
ये सिर्फ कहानी नही
जगत का गोरख धंधा है
कभी ऊपर कभी नीचे
चलता जीवन का पहिंया है।
कल तक बरखा मन भावन
आज बैरी बन सब बहा रही
टाप टपरे टपक रहे निरंतर
तृण,फूस झोपड़ी उजाड़ रही।
सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही
काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुह चिढा रही
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।
कुसुम कोठारी।
ये सिर्फ कहानी नही
जगत का गोरख धंधा है
कभी ऊपर कभी नीचे
चलता जीवन का पहिंया है।
कल तक बरखा मन भावन
आज बैरी बन सब बहा रही
टाप टपरे टपक रहे निरंतर
तृण,फूस झोपड़ी उजाड़ रही।
सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही
काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुह चिढा रही
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।
कुसुम कोठारी।
Monday, 3 September 2018
तिमिर के पार जिजीविषा
तिमिर के पार जिजीविषा
दूर तिमिर के पार एक
आलोकिक ज्योति पुंज है
एक ऐसा उजाला
जो हर तमस पर भारी है
अनंत सागर में फसी
नैया हिचकोले खाती है
दूर दूर तक कहीं प्रतीर
नजर नही आते हैं
प्यासा नाविक नीर की
बूंद को तरसता है
घटाऐं घनघोर, पानी अब
बरसने को विकल है
अभी सैकत से अधिक
अम्बू की चाहत है
पानी न मिला तो प्राणों का
अविकल गमन है
प्राण रहे तो किनारे जाने का
युद्ध अनवरत है
लो बरस गई बदरी
सुधा बूंद सी शरीर में दौड़ी है
प्रकाश की और जाने की
अदम्य प्यास जगी है
हाथों की स्थिलता में
अब ऊर्जा का संचार है
समझ नही आता
प्यास बड़ी थी या जीवन बड़ा है
तृषा बुझते ही फिर
जीवन के लिये संग्राम शुरू है
आखिर वो तमिस्त्रा के
उस पार कौन सी प्रभा है।
कुसुम कोठारी।
दूर तिमिर के पार एक
आलोकिक ज्योति पुंज है
एक ऐसा उजाला
जो हर तमस पर भारी है
अनंत सागर में फसी
नैया हिचकोले खाती है
दूर दूर तक कहीं प्रतीर
नजर नही आते हैं
प्यासा नाविक नीर की
बूंद को तरसता है
घटाऐं घनघोर, पानी अब
बरसने को विकल है
अभी सैकत से अधिक
अम्बू की चाहत है
पानी न मिला तो प्राणों का
अविकल गमन है
प्राण रहे तो किनारे जाने का
युद्ध अनवरत है
लो बरस गई बदरी
सुधा बूंद सी शरीर में दौड़ी है
प्रकाश की और जाने की
अदम्य प्यास जगी है
हाथों की स्थिलता में
अब ऊर्जा का संचार है
समझ नही आता
प्यास बड़ी थी या जीवन बड़ा है
तृषा बुझते ही फिर
जीवन के लिये संग्राम शुरू है
आखिर वो तमिस्त्रा के
उस पार कौन सी प्रभा है।
कुसुम कोठारी।