Tuesday, 24 April 2018

कोई कब तक सुनेगा

रो रो के सुनाते रहोगे दास्ताने गम
     भला कोई कब तक सुनेगा

देते रहोगे दुहाई उजडी जिंदगी की 
    भला कोई कब तक सुनेगा

आशियाना तुम्हारा ही तो बिखरा ना होगा
        भला कोई कब तक सुनेगा

गम से कोई जुदा कंहा जमाने मे
    भला कोई कब तक सुनेगा

अदम है आदमी बिन अत़्फ के
   भला कोई कब तक सुनेगा

अफ़सुर्दा रहते हो अजा़ब लिये
   भला कोई कब तक सुनेगा

आब ए आइना ही धुंधला इल्लत किसे
      भला कोई कब तक सुनेगा

गम़ख्वार कौन गैहान मे आकिल है चुप्पी
     भला कोई कब तक सुनेगा

            कुसुम कोठारी।।

अदम =अस्तित्व हीन,  अत़्फ =दया
अफ़सुर्दा =उदास ,इल्लत =दोष
 गैहान=जमाना, आकिल =बुद्धिमानी

6 comments:

  1. 👌👌👌👌👌
    नये रंग मैं रंग रही कलम चले पुरजोर
    मेरे मन को भा गई तेरी सीख अनमोल
    रोने वालों को ना पूछे
    ना पूछें कोई हाल
    मुस्कुरा कर जंग मैं
    रहिये बस श्री मान !

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर रचना ... 👌👌👌
    कुछ बदला बदला अंदाज अच्छा लगा

    ReplyDelete
  3. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ३० अप्रैल २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर आभार मेरी रचना को लोकतंत्र संवाद मे जगह देकर रचना को सम्मानित किया।

      Delete