गीतिका:मदी जा रही निशा
लहर आ करे खेल तट पर उछल कर।
कभी सिंधु हिय में बसे फिर मचल कर।।
हवा कर रही क्यों यहाँ छेड़खानी।
लगे आ रही अब दिशाएँ बदल कर।।
बजे रागिनी ये मधुर वृक्ष डोले।
सरस गा रहा है पपीहा बहल कर।।
धरा पर नमी है उधर चा़ँद भीगा।
झटक वो गिरी चाँदनी भी सँभल कर।।
किरण सो रही है लता पर पसर अब।
मदी जा रही है निशा भी खजल कर।।
गगन आँगने में चमक जो बिखेरे
कई एक तारे जगे हैं पटल कर।।
स्वरचित
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह
ReplyDeleteआत्मीय आभार आदरणीय।
Deleteप्रकृति का सुंदरता आपकी लेखनी से चौगुनी हो जाती है दी।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आप की रचना ब्लॉग पर पढने को मिली। लिखते रहा करिए दी।
सस्नेह
प्रणाम
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आत्मीय आभार प्रिय श्वेता।
Deleteपाँच लिंकों पर रचना को रखने के लिए हृदय से आभार।
मैं ब्लाग पर उपस्थित रहूंगी।
सस्नेह।
सुंदर रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteकिरण सो रही है लता पर पसर अब।
ReplyDeleteमदी जा रही है निशा भी खजल कर।।
बहुत सुंदर,सादर नमन कुसुम जी
रचना ऊर्जावान हुई आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से कामिनी जी।
Deleteसस्नेह
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें कुसुम जी
ReplyDeleteआपको भी सपरिवार नववर्ष मंगलमय रहे कामिनी जी।
Deleteसस्नेह।
मन में उतरती बहुत सुंदर गीतिका।
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका जिज्ञासा जी लेखन ऊर्जावान हुआ आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से।
Deleteप्रकृति का सहज चितरन ... सुंदर अभिवयकत किय है ...
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका लेखन को संबल देती बहुमूल्य टिप्पणी आपकी
Deleteसादर।