प्रारब्ध और पुरुषार्थ
भूखी भूख विकराल दितिजा
जीवन ऊपर भार बनी।
मीठी नदियाँ मिली सिंधु से
बूंद बूंद तक खार बनी।
बिन ऊधम तो जीवन देखा
रुकी मोरी का पंक है
मसक उड़ाते पहर आठ जब
लगता तीक्ष्ण सा डंक है
लद्धड़ बन जो बैठे उनकी
फटकर चादर तार बनी ।।
निर्धन दीन निस्हाय निर्बल
कैसा प्रारब्ध ढो रहे
अकर्मण्य भी बैठे ठाले
नित निज भाग्य को रो रहे
टपक रहा था श्रम जब तन से
रोटी का आधार बनी।
प्यासे को है चाह नीर की
कुआं खोद पानी लाए
टूट जाते नीड़ पंछी के
जोड़ तिनके घर बनाए
सफलता उन्हें मिली जिनकी
हिम्मत ही आधार बनी।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
विस्मित करती है आपकी रचनाएँ। आज पुनः यही घटित हुआ। आपकी कल्पनाओं का संसार अनूठा है।
ReplyDeleteसाधुवाद। ।।।।।
आपकी अप्रितम प्रशंसा ने रचना को अमूल्य बना दिया।
Deleteमैं अनुग्रहित हुई इस अपरिमित उत्साहवर्धन से ।
बहुत बहुत आत्मीय आभार आपका।
प्यासे को है चाह नीर की
ReplyDeleteकुआं खोद पानी लाए
टूट जाते नीड़ पंछी के
जोड़ तिनके घर बनाए
सफलता उन्हें मिली जिनकी
हिम्मत ही आधार बनी।।...सत्यता को उजागर करती सुंदर कृति..।गहरी सोच..।
"जिज्ञासा की जिज्ञासा "ब्लॉग पर आपका स्वागत है..सादर..।
वाह! जिज्ञासा जी मोहक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई,और उत्साह वर्धन हुआ ।
Deleteसस्नेह आभार।
आपके ब्लॉग पर मौका मिलते ही जा आती हूं,
बहुत सुंदर सृजन है आपका।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 20 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आपका।
DeleteBahut sundar
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteब्लाग पर सदा ही सादर स्वागत है आपका।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२१-११-२०२०) को 'प्रारब्ध और पुरुषार्थ'(चर्चा अंक- ३८९८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार आपका में चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर।
बेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन।
Deleteअर्थपूर्ण रचना, मुग्ध करती है - - आपकी रचनाओं में एक सहज प्रवाह है, जो अपना अलग प्रभाव छोड़ती है - - नमन सह।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ,और नव उर्जा का संचार भी।
सादर।
प्यासे को है चाह नीर की
ReplyDeleteकुआं खोद पानी लाए
टूट जाते नीड़ पंछी के
जोड़ तिनके घर बनाए
सफलता उन्हें मिली जिनकी
हिम्मत ही आधार बनी
–अद्धभुत प्रस्तुति... उम्दा प्रस्तुति हेतु बधाई
बहुत बहुत आभार आपका विभाग जी।
Deleteआपकी उपस्थिति ही लेखन की सार्थकता है ।
साभार।
मेहनत का फल मीठा !
ReplyDeleteआपको ब्लाग पर देख कर मन प्रसन्न हुआ ।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
हमेशा की तरह इस कविता ''प्रारब्ध और पुरुषार्थ''ने भी मन मोह लिया कुसुम जी, निर्धन दीन निस्हाय निर्बल
ReplyDeleteकैसा प्रारब्ध ढो रहे
अकर्मण्य भी बैठे ठाले
नित निज भाग्य को रो रहे
टपक रहा था श्रम जब तन से
रोटी का आधार बनी।...वाह बहुत खूब ..सदैव की भांति
बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी आपकी मोहक टिप्पणी रचना को प्रवाह देती है,और मुझमें उर्जा का संचार।
Deleteसदा अभिभूत हूं मैं।
सस्नेह।
निर्धन दीन निस्हाय निर्बल
ReplyDeleteकैसा प्रारब्ध ढो रहे
अकर्मण्य भी बैठे ठाले
नित निज भाग्य को रो रहे
टपक रहा था श्रम जब तन से
रोटी का आधार बनी।
बहुत ही सुन्दर सार्थक एवं लाजवाब नवगीत...अद्भुत व्यंजनाओं से सजा... वाह!!!!!
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी, आपकी प्रतिक्रिया और स्नेह सदा मेरे लिए उपहार जैसा है ।
Deleteसस्नेह।
Nice BLOg And Great Content thank
ReplyDeleteसस्नेह आभार।
Deleteबेहतरीन नवगीत सखी।
ReplyDeleteप्यासे को है चाह नीर की
ReplyDeleteकुआं खोद पानी लाए
टूट जाते नीड़ पंछी के
जोड़ तिनके घर बनाए
सफलता उन्हें मिली जिनकी
हिम्मत ही आधार बनी।।
आपका प्रारब्ध करता स्तब्ध निश्चय ही जटिल जीवन को सरल बनाती कविता
आपकी रचना को सादर नमन
वाह सधु जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई ,
ReplyDeleteसुंदर सौम्य टिप्पणी सदा उत्साह वर्धन करती है।
सस्नेह आभार।