स्वार्थी मतियाँ
पौढ़ शिखर के तुंग
खरी थी पावन निर्मला
सिंधु से मिली गंग
बनी खारी सकल अमला
गोद भरा अब गाद
हमारी मूढ़ मतियों ने
सदा किया था गर्व
अनोखी वीर सतियों ने
बन बहती वरदान
कभी था रूप भी उजला।।
मनुज बड़ा ही ठूंठ
पहनकर स्वार्थ की पट्टी
खेले भारी खेल
उथलकर काल की घट्टी
दलदल बनाता और
निशाना भी बने पहला।।
गहरे हैं अवगाह
भयानक आपदा होगी
होंगे सकल अनिष्ट
निरपराधी भुगत भोगी
पिघल रहे मुख ज्वाल
पत्थर हृदय नहीं दहला।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'