Monday, 29 March 2021

बिना नाव का नाविक चंदा


 बिना नाव का नाविक चंदा


बालू कण सागर के तट पर

चाँदनी में झिलमिलाये।

और हवा के झोंकों से ये

पात कैसे सरसराये।


इस रजनी में कोई जादू

हृदय पपीहा बोल रहा

लहर पालने बैठा चंदा

धीरे धीरे डोल रहा

आती जाती सिंधु उर्मियाँ

तट छूने को लहराये।।


बिना नाव का नाविक चंदा

किरण हाथ चप्पू  थामा

छप छपाक कर तैर रहा वो

तन पर उजियारी जामा

उठते जब पानी में झूमर

 मोती जैसे बरसाये।।


उद्वेग सिंधु में उठा और

निशा कांत थर-थर डोला

भीगा कुर्ता भीगी चादर

भीगा किरणों का झोला

काला पानी उजली साड़ी

रेशम जैसे बलखाये।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 27 March 2021

होली पर कुंडलियाँ


 होली पर कुंडलियाँ


आया अब मधुमास है, बीत गया है शीत ।

होली मनभावन लगे, चंग बजाए मीत ।

चंग बजाए मीत, गीत मोहक से गाना ।

घर लौटे हैं कंत,  सजा है सुंदर बाना ।

जगा कुसुम अनुराग, प्रीत का उत्सव लाया ।

नाचो गाओ आज, रंग ले मौसम आया ।।


यादें

महके यादें फूल सी, सुरभित जीवन बाग ।

होली रंग गुलाल ज्यों, छाया मन में फाग ।

छाया मन में फाग, विगत बातें मधु रस थी ।

मुख पर लाती हास, रसा मकरंद   सरस थी ।

कुसुम बोध की शाख, पपीहा बैठा चहके।

खोल के रखूँ द्वार, याद का पौधा महके।।


आँचल

फहराता आँचल उड़े, मधु रस खेलो फाग ।

होली आई साजना,  आज सजाओ राग ।

आज सजाओ राग, कि नाचें सांझ सवेरा ।

बाजे चंग मृदंग, खुशी मन झूमे मेरा ।

रास रचाए श्याम, गली घूमे लहराता।

झुकी लाज सेआंख, पवन आँचल फहराता।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Thursday, 25 March 2021

फाग पर ताँका


 फाग पर ' ताँका 'विधा की रचनाएँ ~


१. आओ री सखी

       आतुर मधुमास

       आयो फागुन

       बृज में होरी आज

       अबीर भरी फाग। 


२. शाम का सूर्य 

       गगन पर फाग 

       बादल डोली 

      लो सजे चांद तारे

      चहका मन आज। 


३. उड़ी गुलाल 

       बैर भूलादे मन

       खेलो रे खेलो

       सुंदर मधुरस

       मनभावन फाग ।

             कुसुम कोठारी  'प्रज्ञा'


ताँका (短歌) जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य विधा है। इस विधा को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।


इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों की होती है।

Tuesday, 23 March 2021

चौपाई अष्टक।


 विधा चौपाई छंद


१चंदन वन महके महके से

पाखी सौरभ में बहके से

लिपट व्याल बैठे हैं घातक

चाँद आस में व्याकुल चातक।।


२रजनी आई धीरे धीरे

इंदु निशा का दामन चीरे

नभ पर सुंदर तारक दल है

निहारिका झरती पल पल है।।


३निशि गंधा से हवा महकती 

झिंगुर वाणी लगे चहकती

नाच रही उर्मिल उजियारी

खिली हुई है चंपा क्यारी ।।


४नवल मुकुल पादप पर झूमे

फूल फूल पर मधुकर घूमे।

कोयल बोल रही उपवन में

हरियाली छाई वन वन में ।।


५बागों में बहार मुस्काई

पुष्पों पर रंगत सी छाई।

सौरभ फैली हर इक कण में

भरलो झोली पावन क्षण में।


६शाख सुमन के हार पड़े हैं

माणिक मोती लाल जड़े हैं।

लो तितली आई मन भावन

फैले सुंदर दृश्य  लुभावन।।


७विषय मोह में उलझा प्राणी

कौन मिलेगा शीतल त्राणी

गलत राह पर बढ़ता आता

उर से कभी न लालच जाता।।


८पतन राह का जो अनुरागी 

तृष्णा की बस चाहत जागी

दहक रहा दावानल जैसा

शीतलता देता बस पैसा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 21 March 2021

बहे समसि ऐसे


 बहे समसि ऐसे


आखर आखर जोड़े मनवा 

आज रचूँ फिर से कविता।

भाव तंरगी ऐसे बहती 

जैसे निर्बाधित सविता।


मानस मेरे रच दे सुंदर 

कुसमित कलियों का गुच्छा

तार तार ज्यों बुने जुलाहा 

जैसे रेशम का लच्छा

कल-कल धुन में ऐसे निकले

लहराती मधुरम सरिता।।


अरुणोदयी लालिमा रक्तिम 

अनुराग क्षितिज का प्यारा 

झरना जैसे झर झर बहता

शृंगार प्रकृति का न्यारा 

सारे अद्भुत रूप रचूँ मैं 

बहे वात प्रवाह ललिता ।


निशि गंधा की सौरभ लिख दूं 

भृंग का श्रुतिमधुर कलरव 

स्नेह नेह की गंगा बहती 

उपकारी का ज्यों आरव 

समसि रचे रचना अति पावन 

 रात दिन की चले चलिता।।


         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 19 March 2021

मुनिया और गौरेया


 बाल कविता।

 

मुनिया और गौरेया


आँगन में नीम एक

देता छाँव घनेरी नेक

हवा संग डोलता

मीठी वाणी बोलता

गौरेया का वास

नीड़ था एक खास

चीं चपर की आती

ध्वनि मन भाती

हवा सरसराती 

निंबोलियाँ  बिखराती

मुनिया उठा लाती

बड़े चाव से खाती

कहती अम्मा सब अच्छे हैं

पर ये पंछी अक्ल के कच्चे हैं

देखो अनपढ़ लगते मोको

कहदो इधर उधर बीट न फेंको

सरपंच जी तक बात पहुंचा दें

इनके लिये शौचालय बनवा दें

अगर करे ये आना कानी

जहाँ तहाँ करे मन-मानी

साफ़ करो खुद लाओ पानी

तब इन्हें भी याद आयेगी नानी।


(मुनिया एक देहाती लड़की जो आंगन में झाड़ू लगाती है हर दिन।) 


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

विराट और प्रकृति


 विराट और प्रकृति।


ओ गगन के चँद्रमा , मैं शुभ्र ज्योत्सना तेरी हूँ ,

तू आकाश भाल विराजित, मैं धरा तक फैली हूँ।


ओ अक्षुण भास्कर, मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूँ ।

तू विस्तृत नभ आच्छादित, मैं तेरी प्रतिछाया हूँ।


ओ घटा के मेघ शयामल, मैं तेरी जल धार हूँ,

तू धरा की प्यास हर , मैं तेरा तृप्त अनुराग हूँ ।


ओ सागर अन्तर तल गहरे , मैं तेरा विस्तार हूँ,

तू घोर रोर प्रभंजन है, मैं तेरा अगाध उत्थान हूँ।


ओ मधुबन के हर सिंगार, मैं तेरा रंग गुलनार हूँ ,

तू मोहनी माया सा है, मैं निर्मल बासंती बयार हूँ।


             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 16 March 2021

सतरंगी होली


 सतरंगी होली


नव बसंत नव मधुबन है

नया नया  ऋतुराज।

नव अंकुर को आस जगी है 

प्रस्फुटन की आज।।


नवल टेसू से पादप शोभित

सजने लगी रंग होली 

चंग झनक चौपाल बजे

थिरके मिल हमजोली।


नव्य सुमन मुस्कान लिए

फुनगी चढ़ बल खाये

मधुप रसी रस ढूंढ रहे

भर-भर लेकर जाये।


नव गुलाल अबीर बसंती

धानी वसना हुई धरा 

बहु रंगी शृंगार किए हैं 

लता गुल्म नव ओज भरा।


केसर रंग छलका नभ से

भर-भर रखो कटोरी

गुलनारी सौरभ तो जैसे

ले उड़ी नवल चटोरी।


जा रही है फाग खेलने

नव युवको की टोली

शुभ्र वसन कुमकुमी छींटे

पाग बँधी है मोली।


आज नवेली उड़ी चले

हाथ लिए पिचकारी

अंग रंगे गुलाबी आभा

सतरंगी रंग रंगी सारी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 14 March 2021


 धर्म क्या है मेरी दृष्टि में 


*धर्म* यानि जो धारण  करने योग्य हो

 क्या धारण किया जाय  सदाचार, संयम,

 सहअस्तित्व, सहिष्णुता, सद्भाव,आदि


धर्म इतना मूल्यवान है...,

कि उसकी आवश्यकता सिर्फ किसी समय विशेष के लिए ही नहीं होती, अपितु सदा-सर्वदा के लिए होती है ।

बस सही धारण किया जाय।


गीता का सुंदर  ज्ञान पार्थ की निराशा से अवतरित हुवा ।

कहते हैं कभी कभी घोर निराशा भी सृजन के द्वार खोलती है। अर्जुन की हताशा केशव के मुखारविंद से अटल सत्य बन

 करोड़ों शताब्दियों का अखंड सूत्र बन गई।


विपरीत परिस्थितियों में सही को धारण करो, यही धर्म है।

 चाहे वो कितना भी जटिल और दुखांत हो.....


पार्थ की हुंकार थम गई अपनो को देख,

बोले केशव चरणों में निज शीश धर

मुझे इस महापाप से मुक्ति दो हे माधव

कदाचित मैं एक बाण भी न चला पाउँगा ,

अपनो के लहू पर कैसे इतिहास रचाऊँगा,

संसार मेरी राज लोलुपता पर मुझे धिक्कारेगा

तब कृष्ण की वाणी से श्री गीता अवतरित हुई ।

कर्म और धर्म के मर्म का वो सार ,

युग युगान्तर तक  मानव का

मार्ग दर्शन करता रहेगा ।

आह्वान करेगा  जन्म भूमि का कर्ज चुकाने का

मां की रक्षा हित फिर देवी शक्ति रूप धरना होगा

केशव संग पार्थ बनना होगा ,

अधर्म के विरुद्ध धर्म युद्ध

लड़ना होगा।


               कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'



Thursday, 11 March 2021

प्राबल्य अगोचर



प्राबल्य अगोचर


सृष्टि निर्माण रहस्य भारी

अद्भुत दर्शन से संवाहित

रिक्त आधार अंतरिक्ष का

प्राबल्य अगोचर से वाहित।


सत्य शाश्वत शिव की सँरचना 

आलोकिक सी है गतिविधियाँ

छुपी हुई है हर इक कण में

अबूझ अनुपम अदीठ निधियाँ

ॐ निनाद में शून्य सनातन 

है ब्रह्माण्ड समस्त समाहित।। 


जड़ प्राण मन विज्ञान अविचल

उत्पति संहारक जड़ जंगम

अंतर्यामी कल्याणकार

प्रिय विष्णु महादेव संगम

अन्न जल फल वायु के दाता

रज रज उर्जा करे  प्रवाहित।।


आदिस्त्रोत काल महाकाल  

सर्व दृष्टा स्वरूपानंदा

रूद्र रूप तज सौम्य धरे तब

काटे भव बंधन का फंदा

ऋचाएं तव गाए दिशाएं

वंदन करें देव मनु माहित ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'



Wednesday, 10 March 2021

क्षणिकाएं


 तीन क्षणिकाएं


मन

मन क्या है एक द्वंद का भँवर है

मंथन अनंत बार एक से विचार है

भँवर उसी पानी को अथक घुमाता है

मन उन्हीं विचारों को अनवरत मथता है।


अंहकार 

अंहकार क्या है एक मादक नशा है

बार बार सेवन को उकसाता रहता है

 मादकता बार बार सर चढ बोलती है

अंहकार सर पे ताल ठोकता रहता है।


क्रोध 

क्रोध क्या है एक सुलगती अगन है

आग विनाश का प्रति रुप जब धरती है

जलाती आसपास और स्व का अस्तित्व है

क्रोध अपने से जुड़े सभी का दहन करता है।


                कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 7 March 2021

मधुमास


 मधुमास


मधुबन में मधुमास मगन है

रंग व्योम से बरसे

धरा ओढ़कर नवल चुनरियाँ 

पिया मिलन को तरसे।


बारिश बूँद मन मीत क्षिति का

कब सुध लेगा आकर 

पीले पात झरे शाखा से 

नवल कोंपलें  पाकर 

खेतों में अब सरसों फूली

मिंझर डाली निरसे।।


सुरभित मधुर वात आलोडित

पात नाचते खर खर 

जंगल में दावक से दिखते

सुपर्ण गिरते झर झर

शरद बीत बसंत की बेला

निसर्ग झूमे हरसे।।


पंकज दल आच्छादित सर में

ढाँक दिये पानी को

सिट्टे भी घूंघट से झांके

सहृदय ऋतु दानी को

बसंत है ऋतु ओं का राजा

चैत्र मास में सरसे ।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Thursday, 4 March 2021

निसर्ग महा दानी


 छंद मुक्त


निसर्ग महा दानी


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी

आज सुनाऊं मैं तुझ को

मन की एक कहानी।


तुम कितने नाजुक सुंदर हो

खुश आजाद परिंदे

अपने मन का खाते पीते

उड़ते रहते नभ में

अमोल कोष लुटाता रहता

है निसर्ग महा दानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


नही फिक्र न चिंता करते

नीड़ कभी जो रौंदा

तिनका-तिनका जोड़ बनाते 

फिर एक नया घरौंदा

करते रहते कठिन परिश्रम

तुम सा मिला न ध्यानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


आज चाहिए उतना लेते 

संग्रह कभी न करते

प्रसन्न मन कलरव करते

चिंता मुक्त चहकते

सब कुछ जग में है नश्वर

एक बात तूने जानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


काश मनु भी तुम से 

सीख कोई ले पाता

चारों ओर अमन रहता

गीत खुशी के गाता

प्रीत चुनरिया फिर लहराती 

रंग धरा का धानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


न दंगा न बलवा होता

लूटपाट न डाका

न कोई शासित होता

सब अपने अपने राजा

बैठ बजाते चैन बांसुरी

हठी न कोई होता मानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


लेकिन ऐसा नही है प्यारे

राग द्वेष से भरा ज़माना

चहुं दिशा अफरातफरी है

नही शांति का ताना बाना

सब कुछ छोड़ जगत से जाना

क्यों न समझे अज्ञानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


चल उड़ जा नील गगन में

संदेश अमन का गा तू

मधुर-मधुर अपनी तानों से

प्रेम सुधा बरसा तू

सरस सुकोमल भाव तुम्हारे

समता रस के ज्ञानी।।


ओ पंछी तू बैठ हथेली 

चुगले दाना पानी।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Wednesday, 3 March 2021

किंशुक दहके


 विज्ञात योग छंद आधारित गीत।


किंशुक दहके ।


महके चंदन वन  

बंसत आया

लो सौरभ फैला 

सब को भाया।।


ऋतु हर्षित हर पल 

फैली आभा

पाया अनंत सुख 

बरसे शोभा   

भाव रखो मुखरित 

उत्तम काया ।।


रात ढ़ली काली 

पाखी चहके

जंगल में देखो 

किंशुक दहके 

आलस अब भागा 

मन इतराया।।


शंख ध्वनि गूंजी 

मंदिर जागे 

वट पर भक्तों ने 

बांधे धागे 

हर ओर खुशी है 

प्रभु की माया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'