विषधर
वीण लेकर ढूँढ़ते हैं
साँप विषधर भी सपेरे
नाग अब दिखते नहीं हैं
विष बुझे मानव घनेरे।
जोर तानाशाह दिखते
हर गली हर क्षेत्र भरके
पूँछ दाबे श्वान बैठा
कब हिलाए और सरके
काठ की नौका पुरानी
आज लहरों को उधेड़े।।
कौन तूती की सुने जब
बज रहे गहरे नगाड़े।
घोर विस्मय देख लो जी
कोढ़ को अब थूक झाड़े।
है मचा हड़कंप भारी
दूर है उगते सवेरे।।
डूबते हैं अब किनारे
नाव चढ़ कर यान बैठी
तारने का काम प्रभु का
आदमी की जात पैठी
हो भला सबका विधाता
राम धुन मन पर उकेरे।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
बहुत सुंदर सृजन सखी 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सखी उत्साहवर्धन के लिए।
Deleteसस्नेह।
सच्चाई बयान की है आपने कुसुम जी। देशवासियों की आंखों से परदा हटाने के लिए ऐसी ही रचनाओं की ज़रूरत है आज।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जितेन्द्र जी।
Deleteआपकी व्याख्यात्मक टिप्पणी से रचना मुखरित हुई।
रचना के भावों को समर्थन देने के लिए हृदय तल से आभार।
बिल्कुल सही सूरतेहाल की बयानी।
ReplyDeleteजी सादर आभार आपका।
Deleteभावों को सार्थकता देती प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
सादर।
बहुत ही शानदार 💐💐💐
ReplyDeleteस्वागत सखी।
Deleteढेर सा स्नेह आभार।
सस्नेह।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
सस्नेह।
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना ।इस समय देश की यही स्थिति है ।
ReplyDeleteरचना में निहित भावों को समर्थन देती प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसादर आभार।
वाह-वाह।
ReplyDeleteविचारों का अच्छा सम्प्रेषण है।
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन को नव उर्जा मिली।
सादर।
हर बंध लाजवाब और निशब्द करने के साथ चक्षु खोलने वाला। आपके सृजन में भाव संप्रेषण अद्भुत है ।
ReplyDeleteमीना जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन तो होता ही है साथ ही मन को एक सुकून मिलता है जो सदा सुखद होता है।
Deleteबहुत बहुत सा स्नेह आभार।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-4-21) को "श्वासें"(चर्चा अंक 4042) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी।
Deleteचर्चा मंच पर रचना को रखने के लिए ।
ये मंच सदा मेरे लिए सम्मानिय हैं ।
सादर सस्नेह।
कौन तूती की सुने जब
ReplyDeleteबज रहे गहरे नगाड़े।
घोर विस्मय देख लो जी
कोढ़ को अब थूक झाड़े।
है मचा हड़कंप भारी
दूर है उगते सवेरे।।
अत्यंत मनभावन व प्रभावशाली सृजन।।।।। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया कुसुम जी।
आपकी विस्तृत टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ पुरुषोत्तम जी।
Deleteसुंदर सार्थक प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से आभार।
सादर।
बहुत सुन्दर सृजन प्रिय कुसुम।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार दी आपका आशीर्वाद मिला रचना स्वत:ही सार्थक हुई।
Deleteसादर ।
बहुत प्रभावशाली व यथार्थवादी लेखन,
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका अनिता जी आपको लेखन पसंद आया । रचना मुखरित हुई।
Deleteसादर सस्नेह।
वाकई सब उलट पलट ही हो रहा .... यथार्थ को कहती रचना ।
ReplyDeleteभावों को समर्थन मिला रचना प्रवाहमान हुईं।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
सस्नेह।
जो हो रहा है उसकी परतें खोलती
ReplyDeleteशानदार औऱ प्रभावी रचना
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteआपकी व्याख्यात्मक टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सादर।
बहुत ही सुन्दर प्रभावी गीत .ये ही अनुभूतियाँ हम सबकी भी हैं लेकिन एक अच्छा गीत आपने लिख दिया ..वाह
ReplyDeleteजी अभी सभी संवेदनशील मन ऐसे भाव रखता है।
Deleteभावों की तहतक जकर रचना को समर्थन देने के लिए हृदय तल से आभार।
सादर सस्नेह।
वाह ... भावनाओं की उत्ताल तरंगें मन को आद्य्ताम की और ले जाती हैं ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ...
बहुत बहुत आभार आपका नासवा जी आपकी व्याख्यात्मक टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसादर ।
वाह!गज़ब का सृजन आदरणीय कुसुम दी जी।
ReplyDeleteहर बंद सराहनीय।
सादर
बहुत बहुत आभार आपका प्रिय बहना।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।
सस्नेह।
बहुत सुंदर तरीके से लयबद्ध गीत में आपने आज के कठोर यथार्थ को संप्रेषित कर दिया, गाकर जख्म बयान करने की सुंदर कला को मेरा हार्दिक नमन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी ।
Deleteसच कहूं तो नव गीत शिल्प में बंधकर अगर भाव संप्रेषण सही ढंग से कर पाता है तो ये रचनाकार के लिए सुखद अनुभव है।
आपकी व्याख्यात्मक टिप्पणी से मन प्रसन्न हुआ और लेखन को नव उर्जा मिली।
सस्नेह।
बहुत ही सुन्दर गीत
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मनोज जी ।
Deleteरचना को सार्थकता मिली।
सादर।