विज्ञात छंद आधारित नव गीत
साँझ ढ़ली
साँझ ढ़ली विभा छाई
चँद्र रचे नयी क्रीड़ा ।
मादक सा उजाला है
अंतर चातकी पीड़ा।।
आँचल में खिला तारा
स्वप्न झड़े कड़ी टूटी।
आस रिती रही सारी
प्रीत उसी घड़ी फूटी।
काल बिता फिरे खाली
हाथ उठा लिया बीड़ा।।
जीवन नीर का तोड़ा
बूंद रसा गिरी सारी
रिक्त हुआ झुठी माया
बीत गयी रही खारी
अंतर भीगती काया
राग वृतांत का छेडा।।
रात नमी सिली भीगी
दारुण भाव सी बीती।
वांछित था अभी आना
अद्भुत काल की रीती।
आज न घाव दे जाना
लाख अभी रखी व्रीड़ा।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह
ReplyDeleteअद्भुत... विज्ञात छंद की जानकारी मुझे नहीं थी...
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना, साधुवाद एवं
हार्दिक शुभकामनाएं
🙏🌺🙏
बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआभा बिखेरती, मन मोहती सुन्दर कृति..
ReplyDeleteनिशा की समग्र व्यथा-कथा.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteविश्व हिन्दी दिवस की बधाई हो।