Followers

Thursday 25 April 2019

एक गुलाब की वेदना

एक गुलाब की वेदना

कांटो में भी हम महफूज़ थे।

खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झुलते थे ,
हम मतवाले कितने खुश थे ।

कांटो में भी हम महफूज़ थे ।

फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से , नर्म गालों से ,
दे डाला हमे प्यार की सौगातों में ।

कांटो में भी हम महफूज़ थे ।

घड़ी भर की चाहत में संवारा ,
कुछ अंगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पंखुरी पंखुरी बन बिखरे ।

कांटो में भी महफूज थे हम ।
हां तब कितने  खुश थे हम।।

            कुसुम कोठारी ।

20 comments:

  1. वाह!!बहुत ही बेहतरीन रचना सखी

    ReplyDelete
  2. बहुत सुंदर ...आगे बढने फलसफ़ा देती नज्म ....बधाई .

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार संजय भास्कर जी प्रोत्साहन देती सुंदर प्रतिक्रिया ।
      सादर।

      Delete
  3. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, कुसुम दी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ढेर सा स्नेह प्रिय ज्योति बहन ।

      Delete
  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-04-2019) "परिवार का महत्व" (चर्चा अंक-3318) को पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है

    --अनीता सैनी

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार अनिता जी मेरी रचना को चर्चा मंच पर लाने के लिये।
      सस्नेह ।

      Delete
  5. बहुत खूब प्रिय कुसुम बहन- यही है गहन कवि दृष्टि जो हर, जड़ चेतन का मानविकरण कर उसमें व्याप्त वेदना का एहसास कर लेती है। सुंदर रचना गुलाब जैसे कोमल एहसास लिए दो गुलाब आपके लिए इस भावपूर्ण रचना के नाम 🌹🌷

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिलता है रेणु बहन। और सच कहूं तो साधारण अर्थ नही भावार्थ तक स्पष्ट हो जाते हैं आपकी प्रतिक्रिया से। आपकी प्रतिबध्दता और स्नेह के लिये आभार नही सिर्फ स्नेह।
      ढेर सा स्नेह ।

      Delete
  6. खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
    हवाओं से खेलते झुलते थे ,
    हम मतवाले कितने खुश थे ।
    कांटो में भी हम महफूज़ थे ।
    एक संवेदनशील और कवि मन ही गुलाब की वेदना समझ सकता है और उन्हें पंक्तिबद्ध, कलमबद्ध कर सकता है। बेहतरीन लेखन और इस प्रयास हेतु बधाई आदरणीय ।

    ReplyDelete
  7. वाह बहुत शानदार ढंग से आपने प्रतिक्रिया और सराहना प्रेसित की है पुरुषोत्तम जी अंतर हृदय तल से आभार ।
    सादर ।

    ReplyDelete
  8. कांटो में भी महफूज थे हम ।
    हां तब कितने खुश थे हम।।
    मन की कोमल भावों को अभिव्यक्ति देती सुन्दर सृजनात्मकता ....,फूल के मन की वेदना पर बहुत सुन्दर सृजन कुसुम जी ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सस्नेह आभार मीना जी आपकी इतनी सुंदर मनभावन प्रतिक्रिया से मन बाग बाग हो गया।
      आपके अतुल्य स्नेह का प्रतिदान बस स्नेह स्नेह और स्नेह ।

      Delete
  9. फूल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया...
    जीवन का लक्ष्य ही खत्म हो गया तोड़ लिए जाने पर...फिर पंखुरी पंखुरी बिखरना तो था ही !!!
    आज के अंक में शामिल रचनाओं में यह रचना विशेष है। सबने अपनी स्वयं की वेदना का वर्णन किया और आपने गुलाब की ! एक सुंदर मौलिक सृजन हेतु बधाई।

    ReplyDelete
  10. सस्नेह आभार प्रिय श्वेता ।

    ReplyDelete
  11. आपकी अति विशिष्ट टिप्पणी से मेरी रचना को सार्थकता ही नही मिली,मूझे भी कुछ अलग हट कर लिखने के लिये प्रोत्साहन मिला उत्साह वर्धन और आपके स्नेह का ढेर सा स्नेह आभार मीना जी ।
    सदा स्नेह बनाये रखें।

    ReplyDelete
  12. गहरा सन्देश है ...
    सच है कांटे खुद के हों तो हिफाजत करते हैं ... फूल को नौचने वालों का संता करते हैं ...
    बहुत सुन्दर रचना ...

    ReplyDelete
  13. वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूबसूरत ,प्रेरणादायक रचना ।

    ReplyDelete
  14. गुलाब से वेदना की संवेदना..बहुत खूब।

    ReplyDelete
  15. सुन्दर सृजन कुसुम जी ।

    ReplyDelete